सम्पादकीय
पिछले दिनों की घटनाओं ने तमाम भ्रम तोड़ दिये हैं। बड़ी क्रूरता के साथ समाज ने हमे याद दिला दिया है कि हम महिलाएं आज भी अपने परिवारों, अपनी ससुरालों, अपने समुदायों – यह कहिए कि समस्त समाज के लिए – के लिए केवल उनकी निजी संपत्ति हैं, उनकी प्रतिष्ठा के प्रतीक हैं। हमारी अपनी मर्ज़ी और इच्छा की कोई एहमियत नहीं है। हमारे लिए तमाम महत्वपूर्ण फैसले दूसरे करेंगे। उनके लिए हमारी खुशी और हमारी सुरक्षा नहीं बल्कि उनकी प्रतिष्ठा, उनका सामाजिक स्तर, उनकी इज्ज़त उनको हमारे भविष्य के बारे मे फैसले करने के लिए प्रेरित करेगी।
27 जून को, कानपुर शहर मे एक महिला ने बहुत समय तक अपनी ससुराल मे हिंसा और अपमान बर्दाश्त किया। फिर उसने फांसी लगाकर अपनी जान दे दी। उसने पहले एक पत्र अपने माँ-बाप को लिखा। उसमे उनसे माफी मांगी और लिखा ‘शादी के दो वर्ष हो गए, कोई मुझसे ढंग से बात तक नहीं करता है...अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। अब मैं जा रही हूँ...बहन की शादी अगर अरेंज्ड मैरिज करना तो एक दूसरे से जान पहचान के बाद।‘
दूसरे दिन, एक अन्य महिला की ‘संदिग्ध’ परिस्थितियों मे मौत की खबर अखबारों मे मिली। दरअसल यह उत्तर भारत के हर कोने की रोज़ की खबरे हैं।
चौंकाने वाली खबरे तो केरला से आयीं और फिर कश्मीर से।
केरला मे दो दिन मे दो महिलाओं का ससुराल मे ज़बरदस्त शारीरिक हिंसा और मानसिक उत्पीड़न सहन करने के बाद हुई मौतों की खबर आई। एक के शादी तो माँ-बाप ने बहुत जल्दबाज़ी मे कर डाली थी क्योंकि उन्हे किसी ज्योत्षि ने बताया कि अगर एक साल के अंदर शादी नहीं होती तो लड़के 27 साल की उम्र पहुँचते पहुँचते मर जाएगी। तो बिना जाँचे-पारखे ऐसे लड़के के साथ शादी कर दी जिसका एक अन्य रिश्ता इस लिए टूट गया था कि उसके माँ-बाप दहेज की बहुत अधिक मांग कर रहे थे। शादी तो माँ-बाप ने उसकी जान बचाने के लिए की लेकिन जान उसकी बहुत जल्दी चली गयी। इसके बाद, कई शादी-शुदा महिलाओं से आन-लाइन बात चीत के दौरान केरला की महिला आयोग को बताया गया कि न जाने कितनी महिलाएं हिंसा और अत्याचार बर्दाश्त कर रही हैं और अपना मुंह नहीं खोल रही है। समाज का डर, माँ-बाप की इज्ज़त का ख्याल और अपने आप को असहाय महसूस करना, इन सब बातों ने उनकी बात को दबा कर रख दिया।
कश्मीर से अचानक गरमागरम खबर आई की कई सीख महिलाओं को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाकर उनसे शादी की जा रही थी। फिर बात सामने आई कि अभी एक महिला के साथ ऐसा हुआ है और उसे एक 60 साल के बुड्ढे के साथ, बंदूक की नोक पर धर्म परिवर्तन के बाद ब्याह दिया गया है। उस महिला को पुलिस थाने ले आई। उसने बयान दिया कि वह अपनी मर्ज़ी से एक 29 साल के मुस्लिम पुरुष के साथ चली गयी थी। कानूनी अधिकार तो उसका था ही लेकिन समुदाय और परिवार के सामने पुलिस-प्रशासन असहाय साबित हुआ। दिल्ली से सरदारों के प्रतिनिधि जम्मू पहुंचे, उकसाई गयी भीड़ ने थाने को घेरा, तमाम शहरों मे सिखों ने उग्र प्रदर्शन किए, ‘लव जेहाद’ के खिलाफ नारे गूंजने लगे और, इस सबके बीच, उस लड़की को उसके घेर वालों के सुपुर्द कर दिया गया और सिखों के प्रतिनिधियों ने उसकी शादी एक गुरुद्वारे मे एक सिख लड़के के साथ कर दी।
इस घटनाक्रम के आस-पास, दो दंपत्नियों पर दिल्ली और कर्नाटक मे जानलेवा हमले हुए। कर्नाटक की दंपत्नी मे पुरुष दलित था और महिला मुस्लिम। दोनो को महिला के घरवालों ने बेरहमी से मार डाला। दिल्ली वाली दंपत्नी दोनों ही जाट थे लेकिन एक ही गोत्र के इसलिए लड़की के भाई ने दोने पर वार किया। पति तो मर गया, पत्नी अस्पताल मे गंभीर स्थिति मे है।
15 साल पहले, हमने आइडवा कि ओर से देश भर मे सर्वेक्षण किया था जिसमे हर समुदाय के हर वर्ग से हमने बेटियों की शादियों के संबंध मे सवाल पूछे थे। हिंदुओं की हर जाति के लोगों ने, आदिवासियों ने, मुस्लिम और ईसाई समुदाई के लोगों ने, सबने यही जवाब दिया कि 1990 के दशक मे कुछ ऐसा हुआ कि लड़कियों की शादियाँ कठिन और महेंगी होने लगीं। जिन समुदायों मे कुछ ही साल पहले तक, शादियाँ बहुत सरल और सस्ती होती थीं, उनमे भी दहेज की मांग और महंगी शादी की मांग होने लगी। इससे स्पष्ट था कि नव-उदारवादी नीतियों के चलते सामाजिक रिश्ते भी बाज़ार द्वारा तय किए जा रहे थे। बाज़ार तय करने लगा कि शादी मे कैसी कैसी रसमे होंगी, कैसे कैसे कपड़े पहने जाएँगे। अगर यह सब नहीं किया जाएगा तो लड़की वालों की नाक कट जाएगी। इसी के साथ, बाज़ार यह भी सिखाने लगा कि अगर ससुराल मे लड़को को प्यार और इज्ज़त पाना है तो उसे अपने साथ बहुत सारा सामान लेकर जाना होगा। बाज़ार को ज़िंदा रखने और फलने-फूलने मे शादियाँ बहुत अहम भूमिका निभाती हैं। वे लोग भी जो स्वास्थ, खान-पान और बच्चों की शिक्षा का खर्च नहीं उठा पाते हैं, वे भी लड़की की शादी ‘ठीक’ से करने के लिए कर्जा लेते हैं, अपनी संपत्ति बेचते हैं, कुछ भी करने के लिए तयार हो जाते हैं।
आइडवा के सर्वेक्षण के नतीजों ने इस बात की पुष्टि की कि पूंजीवाद और पुरुषप्रदधानता एक दूसरे के पोषक हैं। नव-उदारवाद तो पूंजीवाद का ही विकत और अधिक शोषण करने वाला रूप है इसलिए उसके चलते, पुरुषप्रदधानता भी और ज़्यादा क्रूरता के साथ पेश आता है। हमारे समाज मे एक अन्य संस्था है जो महिलाओं के अधिकारों को सीमित करने मे बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है, यह है वर्णव्यवस्था। इस प्रणाली को ज़िंदा रखने वाले लोग – और यह हर धार्मिक समुदाय मे बड़ी संख्या मे पाये जाते हैं – अपने परिवारी की महिलाओं की शादियाँ अपने ही जाति के अंतर्गत करने पर आमादा होते हैं। अगर कोई महिला जाति की लक्ष्मण रेखा को पार करने का साहस करती है, खास तौर से अगर वह अपनी जाति से नीची जाति के पुरुष के साथ संबंध स्थापित करती है तो इसके सज़ा बहुत ही कठोर होती है। अक्सर उसको पति के साथ मार ही डाला जाता है। स्वाभाविक है कि अंतरधार्मिक विवाह के प्रति भी इसी तरह का दृष्टिकोण अपनाया जाता है।
पूंजीवाद, पुरुषप्रदधानता और जातिवाद के चलते, महिलाओं के अधिकारों को पूरी तरह से ताक पर रख दिया जाता है। उनकी इच्छा, उनके भावनाओं, सबका कत्ल कर दिया जाता है। अगर वह फिर भी विद्रोह करती हैं, तो उनका भी कत्ल कर दिया जाता है। या फिर, जैसा कि जम्मू मे हुआ, उनको ज़बरदस्ती भेद-बकरी की तरह, किसी दूसरे व्यक्ति को सौंप दिया जाता है।
यह बहुत ही आशान्वित करने वाली बात है कि हाल की घटनाओं ने केरला की बाम मोर्चा सरकार कि आत्मा को झकझोर दिया है। केरला के मुखी मंत्री ने ऐलान किया है कि सरकार महिलाओं की आवाज़ सुनने के लिए और उनके साथ खड़े होने के लिए हर क्षण तयार रहेगी। उन्होने यह भी कहा कि तमाम पाठ्य पुस्तकों की छानबीन की जाएगी और महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाली उन्हे नबरबर ठहरने वाली बाते सब निकाल दी जाएंगी। इसी के साथ, केरला की सीपीआईएम राज्य कमेटी ने ‘स्त्री पक्ष केरलम’ अभियान चलाने का फैसला लिया है जिसके माध्यम से पूरे राज्य मे महिलाओं के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के बारे मे लोगों को प्रेरित किया जाएगा। तमाम जन संगठन भी इसमे भाग लेंगे।
भारत का संविधान महिलाओं को बराबर के अधिकार देता हैं। इन पर प्रहार करने वाले लोगों को, चाहे वह कोई भी हों – परिवर्जन, ससुराल के लोग, समुदाय के तथाकथित प्रतिनिधि, धार्मिक गुरु – अपराधी ठहरकर दंडित किया जाना आवश्यक है।
सुभाषिनी अली