विशेष संपादकीय
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में एक कदम आगे
मरियम धावले, राष्ट्रीय महासचिव, अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति
प्रिया रमानी का हाल ही में आपराधिक मानहानि मामले में बरी होना महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष में मील का पत्थर है। रमानी ने आरोप लगाया था कि दो दशक पहले नौकरी के इंटरव्यू के दौरान संपादक एम जे अकबर ने उनका यौन उत्पीड़न किया था। जब उन्होंने यह आरोप लगाया तो अकबर केंद्र की भाजपा सरकार में मंत्री थे। अकबर के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप 20 और महिला पत्रकारों ने भी लगाए थे। अकबर ने रमानी पर आपराधिक मानहानि और अपनी प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए मुकदमा किया। इसी मामले में रमानी को बरी कर दिया गया था।
एम जे अकबर ने अपना केस लड़ने के लिए देश के सर्वश्रेष्ठ वकीलों को लगाया था। लेकिन प्रिया रमानी की वकील रेबेका जॉन ने इस मामले को सराहनीय तरीके से लड़ाई लड़ी।
अदालत के आदेश ने हिंसा-मुक्त, सुरक्षित कार्यस्थल के लिए एक महिला के अधिकार को बरकरार रखा। इसमें यह भी बताया गया कि मानहानि की आपराधिक शिकायत के बहाने यौन दुव्र्यवहार के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए एक महिला को दंडित नहीं किया जा सकता, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसे दी गयी गारंटी के अनुसार जीवन और गरिमा के अधिकार की कीमत पर प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा नहीं की जा सकती।
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न महिला के समानता, स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीवन के अधिकार का भी हनन है। यह महिलाओं के लिए एक असुरक्षित, डराने वाला और शत्रुतापूर्ण काम का माहौल बनाता है । यह महिलाओं को अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए अवसरों की मांग करने से हतोत्साहित करता है ।
यौन उत्पीड़न की घटनाओं को पहले गंभीर अपराध नहीं माना जाता था और महत्वहीन भी बना दिया जाता था। ‘‘इतना क्यों हो हल्ला किया जा रहा है जबकि उस आदमी ने छूआ भर ही तो है या फिर आंख ही तो मारी है या फिर केवल अश्लील टिप्पणी ही तो की है !!‘‘ -पितृसत्तात्मक दुनिया का यह एक सामान्य बचाव हुआ करता था।
1992 में भंवरी देवी के साथ बेरहमी से गैंगरेप किया गया था क्योंकि उन्होंने राजस्थान में एक बाल विवाह को रोकने की कोशिश की थी। भंवरी देवी ने अपराधियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया और न्याय की लड़ाई लड़ी। हालांकि आरोपियों को निचली अदालत ने बरी कर दिया था। लेकिन भंवरी देवी का दृढ़ निश्चय से अपने संघर्षों को जारी रखने और कोर्ट के द्वारा आरोपियों को आश्चर्यजनक तरीके से बरी करने ने कई महिला समूहों और एनजीओ को विशाखा के सामूहिक मंच के तहत सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने के लिए प्रेरित किया।
1997 में सुप्रीम कोर्ट के विशाखा फैसले से पहले कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़ी किसी घटना पर नियोक्ता द्वारा कैसे कार्रवाई की जानी चाहिए, इस बारे में कोई औपचारिक दिशा-निर्देश नहीं थे।
13 अगस्त, 1997 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी कार्यस्थलों या संस्थानों के लिये दिशा-निर्देश तैयार किए, जब तक कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून 2013 में लागू नहीं किया गया । उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 14, 15, 19 (1) (जी) (जी) और 21 के तहत भारत के संविधान में निहित मानवाधिकारों के बुनियादी सिद्धांतों को शामिल करते हुए महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव (सीडाॅ) को समाप्त करने वाले कन्वेंशन के प्रावधानों को शामिल किया, जिसकी भारत सरकार द्वारा 1993 में पुष्टि की गई थी । उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों को संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत घोषित कानून माना जाना था। इससे कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का मुद्दा फोकस में आ गया । फिर भी केंद्र सरकार को कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 को अधिनियमित करने में 17 साल लग गए ।
यह अधिनियम यौन उत्पीड़न को अवांछित कृत्यों या व्यवहार (चाहे सीधे या निहितार्थ से) अर्थात् शारीरिक संपर्क और आक्रामकता के साथ यौन संबंधों के लिए मांग या अनुरोध, अश्लील टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफी दिखाना, यौन प्रकृति का कोई अन्य अनिष्ट शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक आचरण के रूप में परिभाषित करता है।
इस अधिनियम के बावजूद यौन उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की राह लंबी और दुरूह रही है । इस अपराध के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली महिलाओं को न्याय की लड़ाई में अपमान और ज़बरदस्त बाधाओं का सामना करना पड़ा है । मी टू आंदोलन ने इस मुद्दे को अग्रिम रूप दिया और कड़ा संदेश भेजा कि महिलाएं इस अपमान के खिलाफ चुप नहीं रहेंगी ।
इस पृष्ठभूमि में प्रिया रमानी के फैसले का बहुत महत्व है। यह एक तरह से स्वाभिमान और समानता के लिए महिला आंदोलन की लड़ाई की पुष्टि है । दिल्ली की अदालत के फैसले में एक महिला को सम्मान के साथ जीवन जीने के अधिकार को बरकरार रखा गया है। इन सबसे कठिन समय में, जब इतने सारे निर्दोष लोग जेल में सज़ा काट रहे हैं और ज़मानतों को अस्वीकार किया जा रहा है, तो यह निर्णय गहरे अंधेरे के बीच एक रोशनी की एक किरण के समान है ।
भले ही कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ दर्ज की गई शिकायतें सुई की नोक के बराबर हैं, और महिलाएं सामाजिक कलंक के कारण इसके खिलाफ आवाज़ उठाने से बचती रहती हैं, लेकिन यह निर्णय महिलाओं को बोलने और ऐसे अपमान को स्थायी बनाने से रोकने के लिए प्रोत्साहित करेगा ।