संपादकीय
2021 का यह हमारा आखिरी न्यूजलेटर है. जब तक इसे आप देखेंगे, 2022 शुरू हो गया होगा। यह नया साल कैसा होगा ? कितनी यातनाओं और हमलों का साल होगा ? कहा नहीं जा सकता, लेकिन एक बात तय है, यह संघषों का साल होगा !
तीखे संघर्षों का साल.!!
2021 भी यातनाओं और हमलों का साल था। एक राज्य के बेरहमी से दो टुकड़े करने के बाद, दोनों टुकड़ों को अपमानजनक तरीके से ‘केंद्र शासित इलाके’ नामकरण करने के बाद, धारा 370 समाप्त किये जाने के बाद और पुरे इलाके को सैन्य बलों के हवाले करने के बाद, कश्मीर की जनता और कश्मीर की महिलाओं को जिल्लत, भय और हिंसा के घेरे में जीना पड़ रहा है।
2021 के बड़े हिस्से के दौरान, किसान आन्दोलन को कई तरह के हमले बर्दाश्त करने पड़े।
2021 में मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों के लिए एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसमे उनके बुनियादी नागरिक अधिकारों पर ही न रुकने वाले प्रहार हो रहे हैं।
2021 में दलितों पर और खास तौर से दलित महिलाओं पर होने वाले अत्याचार में इजाफा हुआ है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में रोज 15-16 दलित महिलाओं और बच्चियों के साथ बलात्कार होता है, अक्सर उनकी हत्या भी कर दी जाती है।
2021 में मजदूरों के अधिकारों और नौकरियों, दोनों का हनन हुआ है। अब तो यह हाल है कि अगर सरकार द्वारा किये जा रहे निजीकरण के खिलाफ मजदूर लड़ने की सोचते हैं, तो उन्हें केवल नौकरी से अलग करने की ही नहीं बल्कि जेल भेजे जाने की धमकियाँ मिल रही है।
2021 में हिंसा का नया रूप हमें देखने को मिला जब उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में, केन्द्रीय राज्य गृह मंत्री के बेटे ने अपनी जीप को ही एक हथियार बनाकर, 4 किसानों और एक पत्रकार को जान से मार डाला और कईयों को घायल किया।
लेकिन 2021 में हमने न झुकने वाले किसानों, जिनमे लाखों की संख्या में हमारी बहादुर किसान बहने भी थी, को अहंकार में चूर सरकार चलाने वालों को धूल चटाते भी देखा है।
2021 में हमने मजदूरों को अपने अधिकारों के लिए जबरदस्त लड़ाई लड़ते हुए भी देखा है और उनकी अगली कतारों में हमने आशा, आंगनवाडी और रसोइया बहनों को मुठ्ठी बांधे, लाठियों का सामना करते हुए भी देखा है।
अल्पसंख्यकों और दलितों के अधिकारों के लिए हमने लाखों आवाजों को उठते सुना है और उनके साथ एक-एक करके लोगों को खड़े होते भी देखा है।
केरल, तामिलनाडु और बंगाल में साम्प्रदायिक तानाशाहों की करारी हार की खुशी मनाते करोड़ों महिलाओं और पुरुषों को भी हमने देखा है।
सैन्य बर्बरता के खिलाफ हमने नागालैंड की जनता का उभार भी देखा है। नागा महिलाओं ने अपनी पीड़ा और आक्रोश को कविता में गुंथा है। उनके बोल केवल उनके ही नहीं, हम सबके हैं।
एमिस्न्ला जामीर कोहिमा में साहित्य पढ़ाती हैं। उनकी कविता, ‘कभी कभी’, हम सबके जज्बात को कहती है। ‘‘कभी कभी जब मैं उन फीकी पड़ी खाकियों के सामने से गुजरती हूं, जिनके हाथ में बंदूके हैं, तो मैं भूल जाती हूँ कि यह देश जिसे त्योहारों और गीतों ने लपेट रखा है, अभी भी कांटेदार तार के फीतों से बंधा है...।’’
आप सबको नया साल, नए संघर्षो का साल, निर्णायक संघर्षों का साल मुबारक हो!
सुभाषिनी अली